माननीय उच्च न्यायालय केरल ने गुरुवार को कहा कि केवल बेल की शर्तों का पालन न करना आरोपी को पहले से दी गई बेल को निरस्त करने का आधार नहीं है क्योंकि इस तरह का रद्दीकरण संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। जस्टिस ज़ियाद रहमान ए.ए ने स्पष्ट किया कि शर्तों का पालन न करने के आधार पर बेल निरस्त करने के लिए एक आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को इस सवाल पर विचार करना होगा कि क्या अभियुक्त द्वारा बेल की शर्तों का उल्लंघन न्याय के प्रशासन में बाधा डालना है? या यह कि क्या यह उस प्रकरण की सुनवाई को प्रभावित करता है जिसमें अभियुक्त के खिलाफ मामला बनाया गया हो।
इस प्रकरण में न्यायाधीश द्वारा टिप्पणी की गयी की सिर्फ जमानत की शर्त का उल्लंघन करना न्यायालय द्वारा दी गई बेल को निरस्त करने के आधार प्रर्याप्त नहीं होगा। यह निर्णय लेने से पहले न्यायालय को बाद वाले अपराध से जुड़े हुए दस्तावेजों सहित रिकॉर्ड के आधार पर एक संक्षिप्त जांच करनी होगी और निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि बेल निरस्त करना जरूरी है या नहीं।” याचिकाकर्ताओं पर 2018 में IPC की सेक्शन 341, सेक्शन 308 और सेक्शन 324 सहपठित सेक्शन 34 IPC के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया था।
आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और फिर एक सत्र न्यायालय ने कई प्रकार की शर्तों के साथ बेल दी थी , उनमें से एक यह थी कि उन्हें बेल अवधि के दौरान समान तरह की प्रकृति के किसी अन्य अपराध में शामिल नहीं होना है। इसके बाद मामले की जांच पूरी कर के अंतिम रिपोर्ट सौंप दी थी। इस बीच लोक अभियोजक ने इस आधार पर उनकी बेल निरस्त करने की मांग की कि वे बाद में 2021 में IPC की सेक्शन 143, 147, 308, 324, 506 (ii) और 294 (बी) सहपठित सेक्शन 149 के अंतर्गत एक और अपराध में शामिल हो गए। सत्र न्यायालय ने इन आवेदनों को स्वीकार करते हुए उनकी बेल निरस्त कर दी।
इस कदम से दुखी होकर याचिकाकर्ताओं ने हाईन्यायालय का रुख किया। याचिकाकर्ताओं के लिए वकील एमएच हनीस पेश हुए और तर्क दिया कि 2021 में अपराध के रजिस्ट्रेशन के आधार पर 2018 में पहले से ही दी गई बेल निरस्त करने का आदेश वैध नही है। यह आगे कहा कि तथ्य यह है कि याचिकाकर्ताओं को बाद में अन्य अपराधों के लिए स्वयं ही फंसाया गया था, जब तक कोई ठोस और असाधारण कारण नहीं हों तब तक बेल को निरस्त नहीं किया जाये।
हालांकि वरिष्ठ लोक अभियोजक सीएस ऋत्विक और एमपी प्रशांत ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता आदतन अपराधी प्रवति के लोग हैं हैं और इसलिए सत्र न्यायाधीश के आदेश में किसी प्रकार का बदलाव करने की कोई आवश्यकता नहीं है। न्यायालय ने पाया कि बेल की अवधि के दौरान इसी तरह के अपराधों में शामिल नहीं होने की शर्त विशेष रूप से CRPC की सेक्शन 437(3) सहपठित सेक्शन 439(1)(ए) CRPC के अंतर्गत निर्धारित है। यह देखा गया कि इस तरह की शर्त का विशेष रूप से क़ानून में उल्लेख किया जाना इसके अनुपालन पर जोर देने के महत्व और आवश्यकता को दर्शाता है। हालांकि यहां सवाल यह था कि क्या इस शर्त के उल्लंघन होने पर सभी मामलों में बेल निरस्त कर दी जानी चाहिए। जस्टिस रहमान ने इस सवाल का नकारात्मक जवाब देते हुए कहा कि बेल निरस्त करने से किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित होती है इस लिये बेल को बिना किसी ठोस कारणों के भंग नहीं किया जा सकता।
जस्टिस रहमान ने कहा की मेरे विचार में, केवल इस कारण से कि आरोपी को बेल देते समय ऐसी शर्त लगाई गई थी, जिसके वजह से स्वयं बेल निरस्त नहीं हो जाएगी। यह विशेष रूप से इसलिए है, क्योंकि बेल निरस्त करने का आदेश कुछ ऐसा है जो प्रभावित करता है किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटी दी गई है, जब तक कि इस तरह के आदेश को उचित या उचित ठहराने वाले कारण न हों, पहले से दी गई बेल निरस्त नहीं की जा सकती।
अथवा, न्यायाधीश द्वारा कहा गया कि यह सही बात है की बेल देने वाली न्यायालय को पहले से ही बेल पर छुटे हुए आवेदकों को अरेस्ट करने का आदेश देने का पुर्णतः अधिकार है, लेकिन ऐसी शक्ति का प्रयोग सिर्फ तब ही किया जाना चाहिए जब यह बिल्कुल ही जरुरी हो। इसी तरह, यह निष्कर्ष निकाला गया कि यदि बाद के अपराध कथित तौर पर गवाहों को प्रभावित करने या डराने के इरादे से किए गए हैं तो बेल निरस्तीकरण पर विचार होना चाहिए था, लेकिन यहां ऐसा कुछ प्रतीत नहीं होता है क्योंकि दोनों अपराध पूरी तरह से अलग हैं और दोनों अपराधों का एक दूसरे के साथ कोई संबंध नहीं है।
एकल न्यायाधीश ने कहा कि आवेदक के अकेले अन्य मामलों में शामिल होने से बेल निरस्त करने का कारण नहीं हो सकता, जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता कि बाद के अपराध में याचिकाकर्ताओं की संलिप्तता पहले वाले मामले की सुनवाई को प्रभावित कर रही हो।
यदि अभियोजन एजेंसी, अभियुक्त व्यक्तियों के द्वारा बार-बार अपराध करने से संबंधित है तो उनके लिए पर्याप्त वैधानिक प्रावधान उपलब्ध हैं ताकि अभियुक्त व्यक्तियों को निवारक निरोध के अधीन करने के लिए उचित कार्यवाही शुरू की जा सके। CRPC की सेक्शन 437(5) और 439(2) में निहित शर्तों को निवारक निरोध कानूनों के विकल्प के रूप में नहीं माना जा सकता।
न्यायालय ने यह भी कहा कि CRPC में कोई प्रावधान नहीं है जो विशेष रूप से बेल निरस्त करने से संबंधित है। इसके बजाय, न्यायालय को यह शक्ति दी जाती है कि वह पहले से ही बेल पर रिहा किए गए व्यक्ति को गिरफ्तार करने और जेल के लिए प्रतिबद्ध होने का निर्देश दे, यदि ऐसा करना आवश्यक हो, जो बेल निरस्त करने का प्रभाव होगा, इसलिए जो प्रासंगिक है वह केवल बेल की शर्त का उल्लंघन नहीं है बल्कि न्यायालय की संतुष्टि है कि ‘ऐसा करना जरूरी है।
जस्टिस रहमान ने स्पष्ट किया की हर मामला भिन्न होता है इसलिए इस मामले के संबंध में कोई तेज़ ओर कठोर कानून के बारे में विचार नही किया जा सकता । यह भी पाया गया कि बाद के अपराध ने उस मामले की निष्पक्ष सुनवाई के संचालन में हस्तक्षेप नहीं किया जिसमें वह शामिल है। इस प्रकार, याचिकाओं को स्वीकार कर लिया गया और उनकी बेल निरस्त करने के आदेश निरस्त कर दिए गए।